BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

गीता का नीतिशास्त्र कर्मयोगी का नीतिशास्त्र है। यह न तो निष्कर्मण्यता का नैतिक विधान है और न ही कर्म त्याग का यह अनासक्त कर्मयोग है। जब मनुष्य क्षणभर भी बिना कर्म के रह नहीं सकता तो इसका उपाय यही है कि मनुष्य कर्म करे, परन्तु फलासक्त होकर नहीं। गीता के अनुसार कर्म का त्याग नहीं किया जाता है वरन् कर्मफल का त्याग किया जाता है। कर्म, अकर्म तथा विकर्म का विवेक करके मनुष्य अपने कर्मों का पालन ईश्वर - अर्पण बुद्धि से करता है। विकर्म वह कर्म है जिसका शास्त्रों ने निषेध किया है। इनको तो करना ही नहीं है। गीता अकर्म को प्रश्रय नहीं देती अर्थात् कर्म से पूर्ण विरक्ति सम्भव नहीं है, अतः कर्म निष्काम भाव से सम्पादित करना है। गुणातीत या स्थितप्रज्ञ पुरुष भी निष्कर्म नहीं रहता। वह निष्काम भाव से कर्म करता रहता है। गीता के तीसरे अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि अनासक्त होकर निरन्तर अपने कर्तव्य का अच्छी प्रकार से पालन करना चाहिए। इसी से ईश्वर की प्राप्ति होती है। ऐसे ज्ञानी भी लोक संग्रह के लिए कर्म करते हुए परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। गीता का यथार्थ आदर्श है- लोक संग्रह अथवा जगत का एकतारूपी संघटन। पूर्ण पुरुष की आत्मा जगत में कार्य कर रही है। पुण्यात्मा व्यक्ति को इसके साथ सहयोग करना चाहिए और संसारमात्र के कल्याण को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। निष्काम कर्मयोग में कर्म ईश्वरार्पण बुद्धि से किया जाता है और ज्ञानी भक्त अपने को निमित्त मात्र समझता है। इस प्रकार निष्काम कर्मयोग में मनुष्य स्वार्थ से परार्थ की ओर जाता है। चूँकि उनकी सारी प्रवृत्ति, संकल्प ज्ञान, भाव, सभी ईश्वरीय हो जाते हैं। इसलिए वह 'स्व' से ऊपर सर्वभूताहिताः की अवस्था में पहुँच जाता है। लोकरक्षार्थ, लोकहित अथवा लोक संग्रह के लिए कार्य करता है फिर वह कर्मी होकर भी अकर्मी बना रहता है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि लोकसंग्राही, स्थितप्रज्ञ भक्त या गुणातीत लोक संग्रह केवल बुद्धि से कर्तव्य करता है, इसलिए गीता में यह नहीं कहा गया है कि लोकसंग्रहार्थ अर्थात् लोक संग्रह स्वरूप फल पाने के लिए करने चाहिए ('लोकसंग्रहमेवापि संश्यन् ' 3120 )। लोकसंग्राही की यही पूजा है। यह अपने कर्मों से ही भगवान की पूजा करता है। श्री अरविन्द के शब्दों में, "गीता का उपदेश यह है कि हमें अपने कर्म से 'स्वकर्मणा' भगवान की पूजा करनी चाहिए। हमें अपनी सत्ता और प्रकृति के स्वधर्म के द्वारा निर्धारित कर्मों को भगवान की भेंट चढ़ाना चाहिए क्योंकि सृष्टि की समस्त गति तथा कर्म की समस्त प्रकृति भगवान से ही उत्पन्न होती है और उन्हीं ने यह सम्पूर्ण जगत विस्तारित किया है और लोक संग्रह के लिए लोकों को संगठित रखने के लिए वे स्वभाव के द्वारा समस्त कर्म का परिचालन और गठन करते हैं।"

मानवतावादी धर्म और लोक संग्रह - आधुनिक युग में तथाकथित मानवतावादी धर्म का प्रभाव देखा जा रहा है। वैसे तो सभी धर्मों में मानवता को महत्व दिया गया है परन्तु धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाले लोगों का एक धर्म ऐसा भी है जो मानव कल्याण, सामाजिक कल्याण, मानव प्रगति आदि का नारा लगाता है। किसी अर्थ में यह ठीक ही कहा जा सकता है; परन्तु इनका लोकहित या लोक-कल्याण परार्थवादी होते हुए भी आत्मवादी है क्योंकि इनकी दृष्टि में अधिकतम का अधिकतम सुख आवश्यक है। 'सर्वभृतहित' इनका लक्ष्य नहीं है। इसके विपरीत इनके परार्थ के कार्य 'आत्मप्रेम' के लिये होते हैं। अपने आत्म-सन्तोष तथा यश प्रसिद्धि के लिये ये लोकोपकार का कार्य करते हैं। इसके विपरीत गीता का लोक संग्रह आत्म-सुख के लिए नहीं है। इसका नैतिक मूल्य दूसरों की सेवा में निहित है। धार्मिक दृष्टि से यह सेवा ईश्वर की सेवा है। ऐसा व्यापक दृष्टिकोण मानवतावादी धर्म में नहीं पाया जाता।

'लोक संग्रह' वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की पूर्णता है गीता नीतिशास्त्र के सामाजिक और वैयक्तिक दोनों पक्षों की पूर्ति करती है अर्थात् इसके नैतिक दर्शन से व्यक्ति को पूर्णता तथा स्वतन्त्रता प्राप्त होती है और दूसरी ओर समाज की सुरक्षा, सामाजिक पूर्णता तथा लोक-कल्याण भी होता है। स्थितप्रज्ञ, गुणातीत या भक्त की अवस्था को व्यक्ति निष्काम की स्थिति से प्राप्त करता है और लोक संग्रह के द्वारा वह समाजिक नैतिकता की पूर्णता प्राप्त करता है। इसमें यह तथ्य निहित है कि निष्काम भाव को प्राप्त हुए बिना लोक संग्रह का कार्य नहीं किया जा सकता। जो कुछ भी सामाजिक कार्य अन्य लोगों द्वारा होते हैं उनमें स्वार्थ-दृष्टि रहती है,' परन्तु लोकसंग्राही जिस अर्थ में गीता की मान्यता है, वही हो सकता है जो गुणातीत या स्थितप्रज्ञ है। यह ईश्वर प्राप्ति के बिना सम्भव नहीं है, गीता का यह सर्वोच्च नैतिक दर्शन है। इस अर्थ में गीता ने अध्यात्म और नीतिशास्त्र का समन्वय किया है।

सामाजिक नैतिकता और स्वधर्म - यहाँ गीता के सामाजिक नैतिकता के प्रसंग में वर्णव्यवस्था का उल्लेख आवश्यक है। गीता स्वधर्म के पालन पर बल देती है। इसी से लोक संग्रह और ईश्वर की प्राप्ति होती है। स्वधर्म को 'स्वभाव कर्म', 'स्वकर्म', कहीं-कहीं 'सहज कर्म' और 'नियत कर्म' भी कहा गया है। गीता स्पष्ट शब्दों में कहती है कि मनुष्य स्वकर्मात्मा या स्वे- स्वे कर्मर्थ्याभिरतः नैतिक और आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अपने से भिन्न मानसिक स्वभाव के लोगों के कर्तव्यों का अर्थात् पर धर्म का पालन करने में समाज में उपयुक्त सिद्ध नहीं हुआ जा सकता। प्रश्न है कि कैसे ज्ञात हो कि किसका कौन-सा धर्म या कर्म है? इसके विषय में गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः अर्थात् गुण और कर्म के विभागानुसार चार वर्ण मेरे द्वारा रचे गये हैं। गीता के अनुसार यह भी सत्य है कि पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो प्रकृति उत्पन्न तीन गुणों से वंचित हो। अतः चारों वर्णों के लोग भी इन तीन गुणों से युक्त हैं। ब्राह्मण में सतोगुण की प्रधानता होती है। शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध, दान, शासन ये क्षत्रिय के स्वभावजन्य कर्म हैं।

वास्तव में गीता के श्लोकों का प्रचलित जाति भेद के साथ कोई समन्वय नहीं है क्योंकि यह चतुर्वर्ण के अर्थात् आर्य जाति के चार सुनिर्दिष्ट वर्गों के प्राचीन समाजिक आदर्श से अत्यन्त भिन्न वस्तु है और यह गीता के वर्णन के साथ किसी प्रकार भी मेल नहीं खाता। सामाजिक निर्माण और सुरक्षा की दृष्टि से ही विभिन्न स्वभाव और प्रकृति वालों के लिये गीता के इस समाजिक नैतिकता का निर्माण किया गया है। इतना ही नहीं बाध्य भी किया गया है कि व्यक्ति को 'स्वधर्म' का पालन चाहे जितनी भी कठिनाई क्यों न हो अवश्य करना चाहिए। 'परधर्म' अर्थात् जो अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुरूप कर्म नहीं हैं, सरल और सुलभ होते हुए भी भयावह हैं, नहीं करना चाहिये। गीता के स्वभाव धर्म अथवा स्वधर्म को परम्परागत जाति धर्म से बिल्कुल अलग समझना चाहिए। श्री अरविन्द गीता के स्वधर्म क लक्ष्य व्यक्ति के आन्तरिक विकास को मानते हैं। चारों वर्ण मनुष्य में आत्मविकास की अवस्थाएँ हैं। गीता का लक्ष्य है "मनुष्य की आन्तरिक सत्ता के साथ उसके बाह्य जीवन का सम्बन्ध दर्शाना और उसकी अन्तरात्मा से तथा उसकी प्रकृति के आभ्यन्तरिक विधान से उसके कर्म का विकास दर्शाना' गीता कर्मों का वर्णन आन्तरिक स्वभाव की परिभाषा में करती है। श्री अरविन्द यही बात दूसरे स्थल पर भी कहते हैं कि "यह सच है कि इस जन्म में लोग अधिकतर चार श्रेणियों में से किसी एक के अन्तर्गत होते हैं- ज्ञानी मनुष्य, बलशाली मनुष्य, उत्पादनशील प्राणिक मनुष्य और स्थूल श्रम एवं सेवा में परायण मनुष्य। ये आधारभूत विभाग नहीं, बल्कि हमारे मनुष्यत्व में आत्माविकास की अवस्थाएँ हैं।"

सारांश में श्री अरविन्द गीता के स्वधर्म के तीन मन्तव्य प्रकट करते हैं। प्रथम समस्त कर्म अन्दर से ही निर्धारित होने चाहिए क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के अन्दर कोई अपना निजी तत्व होता है, अपनी प्रकृति का कोई विशिष्ट धर्म एवं सहज भक्ति होती है। विकास के लिए यथार्थ प्रारम्भ स्थल होती है। दूसरे, मोटे तौर पर मनुष्य की प्रकृति चार श्रेणियों में विभक्त है, इनमें से प्रत्येक अपने विशिष्ट क्षेत्र को घोषित करती है और इसी से उसके बाह्य सामाजिक जीवन में उसकी यथार्थ कार्य परिधि का निर्धारण करना चाहिए। तीसरे, मनुष्य चाहे जो भी कार्य करे वह उसे अपनी सत्ता के धर्म, अपनी प्रकृति के अनुसार सम्पन्न करे।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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